एएमयू शिक्षकों की मौलाना आजाद के योगदान पर चर्चा में भागीदारी

अलीगढ 22 अगस्तः अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विषय विशेषज्ञों और आधुनिक भारतीय इतिहास के शोधकर्ताओं ने प्रख्यात विचारक, शिक्षाविद् और स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक, मौलाना अबुल कलाम आजाद के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से चर्चा की। इस दो दिवसीय चर्चा का आयोजन संयुक्त रूप से मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के मौलाना आजाद चेयर और मास कम्युनिकेशन एंड जर्नलिज्म विभाग द्वारा सैयद इरफान हबीब द्वारा लिखित पुस्तक ‘मौलाना आजादः ए लाइफ’ पर विचार विमर्श के लिए किया गया था।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद और अंग्रेजी विभाग के श्री दानिश इकबाल को मानु के मौलाना आजाद चेयर प्रोफेसर और एएमयू भाषाविज्ञान विभाग के पूर्व शिक्षक, प्रोफेसर इम्तियाज हसनैन द्वारा चर्चाकर्ता के रूप में इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था।

‘मौलाना आजाद और 1947 के बाद से भारतीय मुसलमानों की स्थितिः बाद की पुस्तकों पर एक चर्चा’ विषय पर बोलते हुए, प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद ने मुशीरुल हक की 1970 की पुस्तक, ‘आधुनिक भारत में मुस्लिम राजनीति, 1857-1947’ और प्रतिनव अनिल की नवीनतम पुस्तक, ‘अनदर इंडिया’ के सन्दर्भ में एक राजनेता के रूप में मौलाना आजाद की विफलताओं पर सवाल खड़े किये।

अपने निष्कर्ष को संदर्भित करते हुए, प्रोफेसर सज्जाद ने पीटर हार्डी का जिक्र किया, जिन्होंने कहा था कि सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा पर जोर देकर, भारत के मुस्लिम नेतृत्व, विशेष रूप से आजाद ने, एक ‘न्यायिक बस्ती’ बनाने का प्रयत्न किया क्योंकि उनका लक्ष्य इमाम-ए-हिंद बनना था। यह मुसलमानों के अराजनीतिकरण का एक कारण साबित हुआ और यह आजादी के बाद भी जारी रहा।

उन्होंने कहा कि मुशीरुल हक की किताब पर आजाद के सबसे प्रसिद्ध जीवनीकारों द्वारा कम ही बहस की गयी है, हालाँकि, आजाद के अकेलेपन को हुमायूँ कबीर और एम मुजीब की 1966 की किताब में दोनों ने स्वीकार किया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि आजाद, अन्य व्यक्तियों से अलग थलग ही रहते थे, अपने बौद्धिक कद के चलते छोटी-छोटी राजनीतिक बातों का आनंद काम ही लेते थे और गठबंधन, संबद्धता या विरोध के संदर्भ में सोचने में बहुत गर्व महसूस करते थे। वह एक राजनेता थे जो एक राजनेता के सामान्य कार्यों को स्वीकार नहीं करते थे, और वह सिद्धांतों में इतना उलझे हुए थे कि वह एक कुशल प्रशासक भी नहीं बन सके। उन्हे वही मानना पड़ा जो वह थे, उनके व्यक्तित्व के अलावा उनमें कोई अन्य योग्यता नहीं थी।

अबुल कलाम आजाद ने बहुत ही चतुराई से अपने चारों ओर एक ऐसा वातावरण बनाया जिसने उन्हें उलेमा में से एक के रूप में पहचाने जाने का मार्ग प्रशस्त कियाय भले ही वह उनमें से नहीं थे। यह उन्हें करना पड़ा, क्योंकि, अन्यथा, आम तौर पर मुसलमानों और विशेष रूप से उलेमा को उनकी राजनीतिक नींद से जगाने के अपने प्रयासों में वह इतने सफल नहीं होते। लेकिन चूँकि धर्म राजनीतिक इमारत की आधारशिला था, आजाद को राजनीति को धर्म के साथ जोड़ना पड़ा।

प्रोफेसर सज्जाद ने सवाल उठाया कि आजाद दारुल इरशाद (कलकत्ता) और मदरसा इस्लामिया (रांची) के साथ अपने दो प्रयोगों को कायम रखने में क्यों विफल रहे और 1930 के दशक में जब शरीयत अधिनियम का मसौदा तैयार किया जा रहा था तो उन्होंने उसमें क्या भूमिका निभाई। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान सभा की बहसों में आजाद का हस्तक्षेप या अहस्तक्षेप एक ऐसा विषय बना हुआ है जिस पर बहुत काम चिंतन किया गया है या जिस की व्याख्या काम ही की गयी है।

श्री दानिश इकबाल ने फैसल देवजी की अपोलोजेटिक मॉडर्निटी से भरपूर लाभ उठाते हुए औपनिवेशिक आधुनिकता के साथ आजाद के जुड़ाव और बौद्धिक इतिहास पर समकालीन विद्वता के सन्दर्भ में इसके चित्रण पर प्रकाश डाला।

उन्होंने आजाद के इस्लामी उपदेशों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही उस समय की सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों से निपटने में उन उपदेशों की पुनर्व्याख्या पर बात की।

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